जनता को अपनी बातों से लुभाने में पारंगत नेताओं में एक बात मिलती-जुलती है। एक ऐसा दौर जरूर आता है जब ये लोकलुभावन नेता अपने जोशीले समर्थकों से कहते हैं कि राष्ट्र की समस्याएं तभी दूर हो सकती हैं जब साहसिक एवं कठोर कदम उठाए जाएं और उन्हें छोड़कर अन्य लोगों या दलों में ऐसा करने का साहस नहीं है।

ये कदम जो भी हों मगर ‘विशेषज्ञ’ इनके पक्ष में नहीं रहते हैं। इसका कारण यह है कि इस प्रकार के फैसलों के क्रियान्वयन में काफी दुख-दर्द सहना पड़ता है। हालांकि, लोकलुभावन नेता राष्ट्र की आकांक्षाओं एवं साहस का चोला ओढ़ कर अपने समर्थकों की नजर में बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए से ऐसे निर्णय लेते हैं। ये निर्णय कुछ लोगों के लिए बेतुका तो कुछ सीमित सोच रखने वाले लोगों के लिए अभूतपूर्व होते हैं।
किसी लोकलुभावन नेता की एक खास पहचान यह होती है कि वह अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और राष्ट्रीय सम्मान के लिए जोखिम लेने के लिए हमेशा तैयार रहता है।

दुनिया के पहले लोकलुभावन नेआतों (उदाहरण के लिए जूलियस सीजर ने सीनेट के साथ लड़ाई में अपनी सेना के साथ रूबिकॉन नदी पार करते समय कहा था कि अब फैसला लिया जा चुका है और पीछे नहीं मुड़ा जा सकता) से लेकर अब तक जो भी नेता हुए हैं उनके मन में हमेशा यह सोच रही है कि तर्क, सामान्य समझ और पूर्व दृष्टांत जैसे शब्द केवल दूसरों, कमजोर नेताओं के लिए बने हैं।

यही वह तलब या भूख थी कि तीन साल पहले रूस यूक्रेन पर हमला कर बैठा। रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के किसी भी सलाहकार ने उन्हें यूक्रेन के साथ पूर्ण युद्ध और उसे जीत लेने की सलाह नहीं दी होगी, इसके बावजूद उन्होंने (पुतिन) यह जोखिम ले लिया। तीन साल बीतने के बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि अंत में इस लड़ाई से पुतिन और रूस को क्या हासिल होगा।

शायद ऐसे निर्णयों के सर्वाधिक चौंकाने वाले परिणाम अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नजर आते हैं। अर्थशास्त्री लोकलुभावन नेताओं के ठीक उलट होते हैं। ये वे लोग होते हैं जो सबसे पहले लोकलुभावन नेताओं की अनदेखी का शिकार होते हैं। अमेरिका में इस सप्ताह अर्थशास्त्रियों के विचारों को कुछ कुछ इसी प्रकार की अनदेखी का सामना करना पड़ा। आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञों के बार-बार आगाह किए जाने के बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप उन धारणाओं से नहीं हटे जिनके लिए वे 1980 के दशक से आवाज उठाते रहे हैं। ट्रंप की नजर में व्यापार घाटा अनुचित है और अमेरिका को दूसरे देशों से आने वाली वस्तुओं पर अधिक शुल्क लगाना चाहिए। स्पष्ट है कि इन नए शुल्कों का ढांचा तैयार करने में किसी विशेषज्ञ की सलाह नहीं ली गई थी। अमेरिका द्वारा लगाए गए इन शुल्कों ने तर्क, व्यवहार, पारदर्शिता और आर्थिक सिद्धांत सभी को जिस तरह से दरकिनार कर दिया है, उसे देखते हुए पूरी दुनिया स्तब्ध और आश्चर्यचकित है।

अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र की परंपरागत संकल्पना से ये शुल्क पूरी तरह भटके दिखाई दे रहे हैं। हालांकि, इसी वजह से इन शुल्कों पर इतनी चर्चा भी हो रही है। जिस तरह सोवियत संघ के लोगों का 1930 के दशक में मानना था कि जोसेफ स्टालिन कठिन से कठिन कार्य को अंजाम दे सकते हैं उसी तरह ट्रंप के समर्थकों को लगता है कि वह किसी भी अर्थशास्त्री से बेहतर समझ रखते हैं।

ट्रंप पहले ऐसे लोकलुभावन नेता नहीं हैं जिन्होंने आर्थिक सिद्धांत को सीधे-सीधे दरकिनार करने की कोशिश की है। तुर्किये के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोआन ने कई वर्षों तक अपनी ताकत का इस्तेमाल परंपरागत मौद्रिक नीति को निशाना बनाने के लिए किया। हरेक आर्थिक ढांचे और आर्थिक सिद्धांत के उलट एर्दोआन को हमेशा लगा कि ऊंची ब्याज दरें मुद्रास्फीति बढ़ाती हैं। तुर्किये के केंद्रीय बैंक के गवर्नर ने जब बेलगाम महंगाई से निपटने के लिए ब्याज दरें बढ़ाईं तो अर्दोआन ने उन्हें बर्खास्त करने में जरा भी देरी नहीं की।

ऐसे सभी निर्णयों के पीछे की राजनीति को समझना काफी आसान है। लोकलुभावन नेता स्वयं को एक पुरानी एवं अडिग सोच रखने वाले संभ्रांत लोगों से अलग मानते हैं। उनका मानना है के ये संभ्रांत लोग वास्तविक नागरिकों के हितों को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं। जब अर्थशास्त्री किसी नीतिगत उपाय के बारे में यह कहते हैं कि ये पूरी तरह व्यावहारिक नहीं हैं तो लोकलुभावन नेताओं के समर्थक यह कहने में जरा भी देरी नहीं करते कि पुरानी सोच वाले लोग फिर अपनी टांग अड़ाने लगे हैं।
अमेरिका में फिलहाल निश्चित तौर पर कुछ ऐसा ही लग रहा है। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) अभियान के कई सदस्यों ने सवाल उठाए हैं कि शुल्कों के प्रभाव पर अर्थशास्त्रियों की बात क्यों मानी जाए जब उनके विचार वैश्वीकरण के फायदों पर गलत साबित हो चुके हैं। सच्चाई यह है कि उन प्रभावों के आकलन में अर्थशास्त्री गलत नहीं थे और अमेरिका पहले की तुलना में अब अधिक धनी हो गया है इस बात की अब कोई राजनीतिक प्रासंगिकता नहीं रह गई है।

‘मुक्ति दिवस’ शुल्क जैसे कड़े एवं गैर-परंपरागत निर्णय अंत में नुकसानदेह होते हैं और इनके सभी के हितों पर नकारात्मक असर ही दिखते हैं। लेकिन इससे कोई अपना विचार बदलने वाला नहीं है। निर्णय सही था; उस पुराने स्थापित अभिजात वर्ग ने एक बार फिर आम अमेरिकियों को लाभ उठाने से रोका।

लोकलुभावन नेता लोकतांत्रिक राजनीति की बिसात पर ही तैयार होते हैं। ऐसे नेताओं से बचा नहीं जा सकता। हर कुछ दशकों में वे उभर आते हैं। अगर किसी देश में ऐसा कोई नेता उभरता है मगर वह परंपरागत एवं व्यावहारिक समझ को दरकिनार करने वाले अधिक निर्णय नहीं लेता है तो वह (देश) स्वयं को भाग्यशाली मान सकता है। रूस अनगिनत बार दूसरे देशों पर चढ़ाई नहीं कर सकता, अमेरिका ऊंचे शुल्कों के साथ हमेशा आगे नहीं बढ़ सकता है और अच्छी बात है कि भारत नोटबंदी की बात भूल चुका है। साल 2016 के उन काले दिनों की याद मुझे किसी और चीज से नहीं आई, जितनी कि ट्रंप महोदय को तर्क और अर्थशास्त्र को चुनौती देते हुए टैरिफ की घोषणा करते समय।